ज़िन्दगी मजबूरियों की दास्तां है,
साथ ख़ुशियों के ग़मों का कारवां है।
है उजाला अब चराग़े-ग़म से घर में,
आंधियों के बेरहम लब बेज़ुबां है।
क्यूं अदालत, क़ातिलों को चाहती है,
न्याय के चुल्हों में पैसों का धुआं है।
झोपड़ी मजबूत है मेरी वफ़ा की,
बेवफ़ाई के महल में छत कहां है।
दर मकाने-इश्क़ का टूटा हुआ है,
नींव के भीतर अहम की आंधियां है।
तुम हवस के आसमां में फ़ंस चुकी हो,
मेरे छत पे सब्र की सौ सीढियां है।
फ़िक्र दुनिया की करें क्यूं,ज़िन्दगी की,
ग़म-ख़ुशी जब तेरे मेरे दरमियां है।
है समन्दर की अदाओं से सुकूं अब,
साहिलों के हुस्न में वो रस कहां है।
राम की नगरी में रहने वालों के घर,
आज क्यूं रावण के पैरों के निशां हैं।
दानी जी ब्लाग की दुनिया में ये मुलाकात काफी सुखद हैं.... रचना के बारे में तो कहने की हिम्मत/ हैसियत ही नही खैर यहा मुलाकाते होती ही रहेगी ....सबा खैर ..... सतीश कुमार चौहान, भिलाई
ReplyDeleteसतीश भाई ब्लाग में पधारने हेतु शुक्रिया। ग़ज़ल पढ कर मन में जो भी ख़याल आये ज़रूर पोस्ट करें ख़ासकर ऐसी बात जिससे रचना की कमियां उजागर हो। तारीफ़ पढने से ये पता नहीं चल पाता कि वास्तविकता क्या है क्यूंकि ब्लाग की दुनिया में तारीफ़ करना एक औपचारिकता निभाने जैसा ज़ियादा होता है।
ReplyDeleteडॉक्टर संजय जी.. बेहद सुन्दर गज़ल .. आप जहा तक आलोचना की बात करते है... वह एक ही बात कहूँगी - पूरी गज़ल में फ्लो है जो अंतिम लाइन में थोड़ा अटकता है.. हालाँकि मै ऐसी रचना नहीं लिख सकती ..
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