सर झुकाता ही नहीं हंगामे- इश्क़,
इसलिये सबसे उपर है नामे-इश्क़।
है नहीं सारा ज़माना रिंद पर,
कौन है जो ना पिया हो जामे-इश्क़।
इश्क़ में कुर्बानी पहली शर्त है,
इक ज़माने से यही अन्जामे-इश्क़।
दुश्मनों से भी गले दिल से मिलो,
सारी दुनिया को यही पैग़ामे-इश्क़।
फिर खड़ी है चौक पे वो बेवफ़ा,
फिर करेगी शहर में नीलामे-इश्क़।
जिसको पहले प्यार का गुल समझा था,
निकली अहले-शहर की गुलफ़ामे-इश्क़।
हुस्न के मंदिर में घुसने ना मिला,
ये अता है ये नहीं नाकामे-इश्क़।
बस तड़फ़ बेचैनी रुसवाई यही,
मजनू को है लैला का इनआमे-इश्क़।
तर-ब-तर हो जाता हूं बारिश में मैं,
दानी का बेसाया क्यूं है बामे-इश्क़।
हंगाम--पल,समय। रिंद-शराबी। अहले-शहरकी-शहरवालों की।
अता- देन। बामे-इश्क़- इश्क़ का छत।
gushtaakhimaf
Saturday, 25 September 2010
Saturday, 18 September 2010
अख़बार हूं,
दर्दो- ग़म आंसुओं का तलबगार हूं,
मैं तो इल्मे-वफ़ा का ग़ुनहगार हूं।
मुझपे इन्सानियत का करम तो है पर,
बदजनों के लिये मैं पलटवार हूं।
धर्म फिर बांट देगा मुझे देखना,
मुल्क का डर,कहां मैं निराधार हूं।
वो सनकती हवाओं सी बेदर्द है,
मैं अदब के चराग़ों सा दिलदार हूं।
तुम हवस के किनारों पे बेहोश हो,
सब्रे सागर का बेदार मंझधार हूं।
मेरे आगे ख़ुदा भी झुकाता है सर,
मैं धनी आदमी का अहंकार हूं।
बेवफ़ाई की दौलत मुझे मत दिखा,
मैं वफ़ा के ख़ज़ाने का सरदार हूं।
ऐ महल ,झोपड़ी की न कीमत लगा,
अपनी कीमत बता,मैं तो ख़ुददार हूं।
रहज़नी रेप हत्या के दम बिकता हूं,
मैं नये दौर का दानी अख़बार हूं।
मैं तो इल्मे-वफ़ा का ग़ुनहगार हूं।
मुझपे इन्सानियत का करम तो है पर,
बदजनों के लिये मैं पलटवार हूं।
धर्म फिर बांट देगा मुझे देखना,
मुल्क का डर,कहां मैं निराधार हूं।
वो सनकती हवाओं सी बेदर्द है,
मैं अदब के चराग़ों सा दिलदार हूं।
तुम हवस के किनारों पे बेहोश हो,
सब्रे सागर का बेदार मंझधार हूं।
मेरे आगे ख़ुदा भी झुकाता है सर,
मैं धनी आदमी का अहंकार हूं।
बेवफ़ाई की दौलत मुझे मत दिखा,
मैं वफ़ा के ख़ज़ाने का सरदार हूं।
ऐ महल ,झोपड़ी की न कीमत लगा,
अपनी कीमत बता,मैं तो ख़ुददार हूं।
रहज़नी रेप हत्या के दम बिकता हूं,
मैं नये दौर का दानी अख़बार हूं।
Saturday, 24 July 2010
राम की नगरी
ज़िन्दगी मजबूरियों की दास्तां है,
साथ ख़ुशियों के ग़मों का कारवां है।
है उजाला अब चराग़े-ग़म से घर में,
आंधियों के बेरहम लब बेज़ुबां है।
क्यूं अदालत, क़ातिलों को चाहती है,
न्याय के चुल्हों में पैसों का धुआं है।
झोपड़ी मजबूत है मेरी वफ़ा की,
बेवफ़ाई के महल में छत कहां है।
दर मकाने-इश्क़ का टूटा हुआ है,
नींव के भीतर अहम की आंधियां है।
तुम हवस के आसमां में फ़ंस चुकी हो,
मेरे छत पे सब्र की सौ सीढियां है।
फ़िक्र दुनिया की करें क्यूं,ज़िन्दगी की,
ग़म-ख़ुशी जब तेरे मेरे दरमियां है।
है समन्दर की अदाओं से सुकूं अब,
साहिलों के हुस्न में वो रस कहां है।
राम की नगरी में रहने वालों के घर,
आज क्यूं रावण के पैरों के निशां हैं।
साथ ख़ुशियों के ग़मों का कारवां है।
है उजाला अब चराग़े-ग़म से घर में,
आंधियों के बेरहम लब बेज़ुबां है।
क्यूं अदालत, क़ातिलों को चाहती है,
न्याय के चुल्हों में पैसों का धुआं है।
झोपड़ी मजबूत है मेरी वफ़ा की,
बेवफ़ाई के महल में छत कहां है।
दर मकाने-इश्क़ का टूटा हुआ है,
नींव के भीतर अहम की आंधियां है।
तुम हवस के आसमां में फ़ंस चुकी हो,
मेरे छत पे सब्र की सौ सीढियां है।
फ़िक्र दुनिया की करें क्यूं,ज़िन्दगी की,
ग़म-ख़ुशी जब तेरे मेरे दरमियां है।
है समन्दर की अदाओं से सुकूं अब,
साहिलों के हुस्न में वो रस कहां है।
राम की नगरी में रहने वालों के घर,
आज क्यूं रावण के पैरों के निशां हैं।
Thursday, 15 July 2010
वादों का चमन
झुलस चुका है तेरे वादों का चमन हमदम,भरम के पानी से कब तक करूं जतन हमदम।
समन्दरे-वफ़ा ही मेरे इश्क़ की महफ़िल , तेरा दग़ा के किनारों सा अन्जुमन हमदम।
कुम्हारों की दुआ है मेरे प्यार की धरा को,अजीज़ है तुझे क्यूं ग़ैर का वतन हमदम।
शराबे-चश्म पिलाती हो इतनी तुम अदा से,लरजता फिर रहा है मेरा बांकपन हमदम।
ग़मे-चराग़ां से रौशन है मेरी ग़ुरबत ,ख़ुशी-ए-आंधियों कर ले तू गबन हमदम।
सज़ा झुके हुवे पौरष को ना दे वरना लोग,कहेंगे टूटा सिकन्दर का क्यूं वचन हमदम।
क़मर ने चांदनी को नाज़ से रखा पर वो,पहन ली बादलों के इश्क़ का कफ़न हमदम।
ग़रीबों से ख़फ़ा है वो अमीरों पर कुरबान,ज़माने से है ज़माने का ये चलन हमदम ।
बचाना है मुझे अपने अहम को भी दानी,वफ़ा के बदले दग़ा क्यूं करूं सहन हमदम।
अंजुमन- महफ़िल,ग़मे-चराग़ां- चराग़ो के ग़म से। ग़ुर्बत-ग़रीबी।क़मर-चांद।
समन्दरे-वफ़ा ही मेरे इश्क़ की महफ़िल , तेरा दग़ा के किनारों सा अन्जुमन हमदम।
कुम्हारों की दुआ है मेरे प्यार की धरा को,अजीज़ है तुझे क्यूं ग़ैर का वतन हमदम।
शराबे-चश्म पिलाती हो इतनी तुम अदा से,लरजता फिर रहा है मेरा बांकपन हमदम।
ग़मे-चराग़ां से रौशन है मेरी ग़ुरबत ,ख़ुशी-ए-आंधियों कर ले तू गबन हमदम।
सज़ा झुके हुवे पौरष को ना दे वरना लोग,कहेंगे टूटा सिकन्दर का क्यूं वचन हमदम।
क़मर ने चांदनी को नाज़ से रखा पर वो,पहन ली बादलों के इश्क़ का कफ़न हमदम।
ग़रीबों से ख़फ़ा है वो अमीरों पर कुरबान,ज़माने से है ज़माने का ये चलन हमदम ।
बचाना है मुझे अपने अहम को भी दानी,वफ़ा के बदले दग़ा क्यूं करूं सहन हमदम।
अंजुमन- महफ़िल,ग़मे-चराग़ां- चराग़ो के ग़म से। ग़ुर्बत-ग़रीबी।क़मर-चांद।
Monday, 12 July 2010
उलझन
उलझनों में मुब्तिला है ज़िन्दगी ,मुश्किलों का सिलसिला है ज़िन्दगी।
बीच सागर में ख़ुशी पाता हूं मैं , साहिले ग़म से जुदा है ज़िन्दगी ।
फ़ांसी फिर मक़्तूल को दे दी गई ,क़ातिलों का फ़लसफ़ा है ज़िन्दगी।
किसी को तरसाती है ता-ज़िन्दगी,किसी के खातिर ख़ुदा है ज़िन्दगी।
मैं ग़ुलामी हुस्न की क्यूं ना करूं, चाकरी की इक अदा है ज़िन्दगी ।
इक किनारे पे ख़ुशी दूजे पे ग़म ,दो क़दम का फ़ासला है ज़िन्दगी।
मैं हताशा के भंवर में फंस चुका, मेरी सांसों से ख़फ़ा है ज़िन्दगी।
बे-समय भी फ़ूट जाती है कभी ,पानी का इक बुलबुला है ज़िन्दगी।
वादा करके तुम गई हो जब से दूर, तेरी यादों की क़बा है ज़िन्दगी ।
मैं चराग़ो के सफ़र के साथ हूं , बे-रहम दानी हवा है ज़िन्दगी।
बीच सागर में ख़ुशी पाता हूं मैं , साहिले ग़म से जुदा है ज़िन्दगी ।
फ़ांसी फिर मक़्तूल को दे दी गई ,क़ातिलों का फ़लसफ़ा है ज़िन्दगी।
किसी को तरसाती है ता-ज़िन्दगी,किसी के खातिर ख़ुदा है ज़िन्दगी।
मैं ग़ुलामी हुस्न की क्यूं ना करूं, चाकरी की इक अदा है ज़िन्दगी ।
इक किनारे पे ख़ुशी दूजे पे ग़म ,दो क़दम का फ़ासला है ज़िन्दगी।
मैं हताशा के भंवर में फंस चुका, मेरी सांसों से ख़फ़ा है ज़िन्दगी।
बे-समय भी फ़ूट जाती है कभी ,पानी का इक बुलबुला है ज़िन्दगी।
वादा करके तुम गई हो जब से दूर, तेरी यादों की क़बा है ज़िन्दगी ।
मैं चराग़ो के सफ़र के साथ हूं , बे-रहम दानी हवा है ज़िन्दगी।
Saturday, 10 July 2010
इश्क़ की खेती
इश्क़ की खेती में अब नुकसान है,बरसों से खाली मेरा खलिहान है।
अब मदद की बरिशें होती नहीं , बादलों का दरिया भी शैतान है।
भोथरे औज़ार हर दिल में जवां , वफ़ा के हल से जहां अंजान है।
शबनमे -दिल की डकैती हो रही , मेढों का नथ तोड़ता इंसान है।
पैसों के चौपाल में बिकता है न्याय,गांव का सरपंच बेईमान है।
प्यार की गलियां हैं दलदल से भरी,कीचड़ों में हुस्न का सामान है।
मैं किनारों के ख़ुदा से क्यूं डरूं ,जब समन्दर मेरा भगवान है।
मैं जलाता हूं चराग़े-सब्र को ,पर हवस का हर तरफ़ तूफ़ान है।
दानी लाचारी ,ग़रीबी ,भूख़ ही ,क्यूं ख़ुदा का दुनिया को वरदान है।
अब मदद की बरिशें होती नहीं , बादलों का दरिया भी शैतान है।
भोथरे औज़ार हर दिल में जवां , वफ़ा के हल से जहां अंजान है।
शबनमे -दिल की डकैती हो रही , मेढों का नथ तोड़ता इंसान है।
पैसों के चौपाल में बिकता है न्याय,गांव का सरपंच बेईमान है।
प्यार की गलियां हैं दलदल से भरी,कीचड़ों में हुस्न का सामान है।
मैं किनारों के ख़ुदा से क्यूं डरूं ,जब समन्दर मेरा भगवान है।
मैं जलाता हूं चराग़े-सब्र को ,पर हवस का हर तरफ़ तूफ़ान है।
दानी लाचारी ,ग़रीबी ,भूख़ ही ,क्यूं ख़ुदा का दुनिया को वरदान है।
Friday, 9 July 2010
ईमान
जब से दिलों की गलियों में ईमान बिकते हैं,हां तब से राहे-इश्क़ बियाबान लगते हैं।
ग़म से भरी है दास्तां मेरी जवानी की ,बज़ारे-इश्क़ मे सदा अरमान सड़ते हैं।
साहिल के घर का ज़ुल्म बहुत झेला है मैंने,मंझधार में ही सब्र को परवान चढते हैं।
दिल में नशा शराब का चढता नहीं कभी ,बस साक़ी के लिये ही गिरेबान फटते हैं।
हर काम पहले थोड़ा कठिन लगता है मगर,कोशिश करोगे दिल से तो आसान होते हैं।
ग़म के चराग़ों से मेरा रिश्ता पुराना है ,सुख के हवाओं में कहां इंसान बनते हैं ।
लबरेज़ है हवस से ,मुहब्बत का दरिया अब,बस चद वक़्त के लिये तूफ़ान उठते हैं।
सैयाद जब से बुलबुलों को बेच आया शहर ,तब से दरख़्ते-शहर परेशान दिखते हैं।
इस मुल्क की विशेष पहचान है दुनिया में,हिन्दू के मंदिरों मे मुसलमान झुकते हैं।
ग़म से भरी है दास्तां मेरी जवानी की ,बज़ारे-इश्क़ मे सदा अरमान सड़ते हैं।
साहिल के घर का ज़ुल्म बहुत झेला है मैंने,मंझधार में ही सब्र को परवान चढते हैं।
दिल में नशा शराब का चढता नहीं कभी ,बस साक़ी के लिये ही गिरेबान फटते हैं।
हर काम पहले थोड़ा कठिन लगता है मगर,कोशिश करोगे दिल से तो आसान होते हैं।
ग़म के चराग़ों से मेरा रिश्ता पुराना है ,सुख के हवाओं में कहां इंसान बनते हैं ।
लबरेज़ है हवस से ,मुहब्बत का दरिया अब,बस चद वक़्त के लिये तूफ़ान उठते हैं।
सैयाद जब से बुलबुलों को बेच आया शहर ,तब से दरख़्ते-शहर परेशान दिखते हैं।
इस मुल्क की विशेष पहचान है दुनिया में,हिन्दू के मंदिरों मे मुसलमान झुकते हैं।
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