Thursday 17 June 2010

मेरा सफ़र

रात उम्मीद से भारी है , सुबह होने नहीं वाली है।
मुश्किलों से भरा है सफ़र ,आज ज़ख्मों की दीवाली है।
मैं चरागों का दरबान हूं , वो हवाओं की घरवाली है।
क़ातिलों को ज़मानत मिली , न्याय मक़तूल ने पा ली है।
मै खुदा को कहां ढूढूं अब , मन्दिरों मे भी मक्कारी है।
सुख समन्दर मे पाता हूं मै , दिल किनारों का सरकारी है।
क्यूं रखूं चांदनी से वफ़ा , बे -वफ़ाई से वो हारी है।
लहरों का सर झुकाने चली , मेरी कश्ती खुरापाती है।
झोपड़ी रास आती मुझे , महलों का दिल अहंकारी है।
गो चढाई पहाड़ों सी है , पैरों की ज़ुल्फ़ें मतवाली हैं।
पड़ चुके पैरों मे छाले गो , फ़िर भी मेरा सफ़र ज़ारी है।

No comments:

Post a Comment